आईपीओ (IPO) और उनके शेयर की कीमतों में होते उतार-चढ़ाव अभी के समय में एक चर्चा का विषय है. अभी के समय में भारत के कुछ बहुत अच्छे स्टार्ट-अप के शेयर की कीमतों में गिरावट पर बहुत बाते चल रही है, जिन्हें सबसे बड़े और सबसे अच्छे स्टार्ट-अप के रूप में गिना जाता है. उन सभी को उनके लिस्टिंग प्राइज से 50% से ज्यादा करेक्ट किया गया है, लेकिन ऐसा क्यों? इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए, आइए भारत के इतिहास के कुछ दशकों पर वापस जाते है और समजनेकी कोशिश करते है.
भारत एक ऐसा देश है जिसका 5,000 से ज्यादा के वर्षों का बड़ा इतिहास है, एक समृद्ध विरासत है, और एक खजाने (treasure) की तरह इसके दिल में बहुत कुछ निहित (embed) है. भारत को ब्रिटिश शासन से 1947 में आजादी मिली थी, लेकिन औद्योगीकरण (industrialization) की दृष्टि से देखें तो भारत ने 1991 में अपनी आजादी हासिल की. शेयर बाजार के साथ तालमेल की बात करें तो हम एक ऐसे देश की बात कर रहे हैं जो अपने आर्थिक विकास (economic development) को देखते हुए सिर्फ 30 साल पुराना है.
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1990 के दशक के बाद ही हमें पूंजीवादी (capitalist) गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति दी गई थी क्योंकि हम एक socialist देश होने के लिए तैयार थे. सोशियलिजम में, एक व्यक्ति को प्रोफिट कमाने और उसे घर ले जाने की जरूरत नहीं है. यदि कोई प्रोफिट कमाता है, तो उसे पुन:र्निवेश (reinvest) करना होगा, यही कारण है कि 1991 से पहले टैक्सेशन सिस्टम इस तरह स्थापित की गई थी कि मुनाफे पर 97 प्रतिशत का टैक्स लगाया गया था.
इसके बाद, जब तक हमारे देश में वैश्वीकरण (globalization) और उदारीकरण (liberalization) नहीं हुआ, तब तक कंपनियों का निर्माण शुरू हो गया और निगमों का साइज बढ़ना शुरू हो गया और हर दूसरी या तीसरी कंपनी जो बच गई, उसने अपने शेयरधारकों को बहुत अच्छा रिटर्न दिया. जिसके कारण शेयरों में निवेश करने का विचार अस्तित्व में आया.
क्या IPO में निवेश करना सुरक्षित है?
इसके संदर्भ में, कंपनियां इन दिनों अपने आईपीओ (IPOs) जारी करके और फिर लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए विकास और अनुसंधान के उद्देश्य के लिए पैसो का उपयोग करके सार्वजनिक होने के बाद आम पब्लिक निवेश के कारण expand करती हैं.
यहां तक कि वॉरेन बफेट जैसे बड़े निवेशक ने भी भारत में ऐसे ही एक स्टार्ट-अप में निवेश किया है और वह है पेटीएम (Paytm). Paytm की लिस्टिंग के दौरान, पेटीएम के सीएफओ ने कहा कि वे पेटीएम के शेयरों की कीमत निश्चित कीमत से अधिक हो सकती है, क्योंकि वे निवेशकों के लिए कुछ वेल्यु देना चाहते थे जो अपने आप में बहुत ही साहसिक बयान है और यह judgmental होने के बारे में नहीं है.
पेटीएम 18,300 करोड़ रुपये (2,150 रुपये प्रति शेयर) पर लिस्टेड हुआ और अभी उसकी वेल्यु केवल 6,588 करोड़ रुपये (775 रुपये प्रति शेयर) है जो मार्केट करेक्शन सिर्फ 10% है, 50% correction नहीं है. Paytm ने न केवल बाजार में अपना आईपीओ जारी किया बल्कि हर आम निवेशक को यह आइडिया इतना पसंद आया कि लोगों ने उनके अप्लिकेशन को ओवरसब्सक्राइब कर दिया.
सिर्फ पेटीएम ही नहीं बल्कि Nykaa, Zomato, Car Trade सभी बड़े स्टार्ट-अप असफल आईपीओ के साथ की लिस्ट में हैं. वे न केवल लिस्टेड हुए बल्कि एप्लीकेशन को 30 गुना ज्यादा oversubscribed मिला.
ये कंपनियां अपने बहीखाते (books) पर प्रोफिटेबल नहीं थीं लेकिन फिर भी, वे सरकार द्वारा कुछ नीतिगत बदलावों के कारण बाजार में अपना IPO जारी करने में सक्षम थीं और अब उनके शेयर की कीमतें बाजार में स्ट्रगल कर रही हैं. पहले कंपनी अगर घाटे में जा रही है तो आईपीओ लाना संभव नहीं था.
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लेकिन हमारे पॉलिसी मेकर्स ने विकसित देशों की आंख बंध करके नकल और अनुसरण करने की कोशिश की, जहां कंपनी को आईपीओ लाने के लिए प्रोफिटेबल होने की जरूरत नहीं है. असफल आईपीओ वाली कंपनियों ने न केवल नुकसान दिखाया और अभी भी बाजार में सार्वजनिक रूप से ज्यादा नुकसान के साथ एन्टर किया और लोगों द्वारा ओवरसब्सक्राइब किया गया और यह सब उस देश में हो रहा है जहां बाजार में लोगों की हिस्सेदारी बहुत कम है.
इसलिए, हम केवल यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि लोग यह कल्पना क्यों करने लगे कि ये कंपनियां जो अपने आईपीओ के साथ बाजार में प्रवेश कर रही हैं, वे इतनी लाभदायक (profitable) हैं कि इसका हिस्सा बनने या इसका एक भाग हथियाने के लिए यह सही स्टेज है.
यह मिथ क्यों क्रिएट किया गया? सभी आम निवेशकों के लिए मिथ को डिकोड करना बहुत जरूरी है.
IPO के बारेंमे मिथ कैसे स्थापित हुआ?
वैश्वीकरण और उदारीकरण के पहले चरण के दौरान, नई कंपनियों का निर्माण किया गया और उन्होंने खुद को बहुत ही अच्छी कीमत पर मार्केट में लिस्ट किया. उन्होंने अपने शेयर की कीमतों को काफी कम रखा क्योंकि इन कंपनियों को अजीज प्रेमजी या नारायण मूर्ति जैसे चरम नैतिक (extreme ethical) व्यक्तित्व वाले इंटरप्रेन्योर्स द्वारा चलाया जाता था, जो खुद बहुत मेहनती, नैतिक और अच्छे लोग हैं.
उस समय अवधि के दौरान कई लोगों ने IPO के शुरुआती दौर में अच्छा मुनाफा कमाया क्योंकि उस समय इक्विटी में निवेश करना अपने आप में एक revolutionary आईडिया था. साथ ही, उस समय बहुत कम लोगों के पास पैसा था और जब कोई कुछ पैसे दे रहा था तो यह काफी बड़ी राशि थी क्योंकि लोगों के पास वास्तव में निवेश करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे, इसलिए जो कुछ भी लोगों ने निवेश किया, उसने अच्छा रिटर्न प्राप्त किया.
लेकिन पिछले 10-15 साल के दौरान, इंफोसिस आईपीओ, रिलायंस आईपीओ और विप्रो आईपीओ के बारे में इंटरनेट पर खबरें प्रसारित होने लगीं, वेब पर बड़ी नामी कंपनियां सामने आईं, जिसमें कहा गया था कि यदि आपने 1991 में विप्रो में 1 लाख रुपये निवेश किया होता तो अभी आपका निवेश बढ़कर 3 करोड़ रुपये तक पहोच गया होता. इंटरनेट इन समाचारों और लेखों से भरा पड़ा है जो कुछ ही दिनों में सनसनी बन गए और इस तरह ऐसे और भी लेख मार्केट में आने लगे.
साथ ही, उन्होंने उन कंपनियों का डेटा नहीं दिखाया, जिनके आईपीओ असफल रहे थे, कितने लोग दिवालिया हो गए या कितनी आत्महत्याएं हुईं, या कितनी कम्पनीयां बंद हो गए. लोग वास्तव में इस सच्चाई से अनजान हैं कि हर्षद मेहता मामले के दौरान बड़ी संख्या में आईपीओ को पूरी तरह से रोक दिए गए थे.
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उन्होंने इंफोसिस, टीसीएस, विप्रो जैसी कंपनियों का नाम लिया, जहां शुरुआती स्टेज के आईपीओ की तुलना में 1000 गुना ज्यादा रिटर्न, एक आग की खबर की तरह फैलाने के लिए है. इसलिए, अगर कोई निफ्टी 50 की जांच करता है और 30 कंपनियों को चुनता है तो निश्चित रूप से वे कंपनियों को इतना अच्छा रिटर्न देंगे. इसे कंडीशनिंग कहा जाता है.
लोगों की मानसिक कंडीशनिंग उन्हें यह विश्वास करने के लिए मजबूर करती है कि IPO उनकी निवेश की गई रकम पर अच्छा रिटर्न देकर उन्हें अमीर बना देगा.
अब जब यह लोगों के दिमाग में बैठ गया है, तो वे यह मानने लगे हैं कि,
- स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड होने से पहले सेबी, सरकारी अधिकारियों द्वारा उनकी गहन जांच और समीक्षा की जाती है.
- आईपीओ में निवेश जोखिम मुक्त और सुरक्षित है.
- और यह एक शुरुआती पड़ाव है जिसमें निवेश करने से सबसे ज्यादा फायदा हो सकता है.
- आईपीओ एक प्रकार की पब्लीक ऑफरिंग है जिसमें अच्छी फर्में पहली बार सार्वजनिक होती हैं.
लेकिन लोग टाइमलाइन को भूल जाते हैं, यह अब 90 का दशक नहीं है, जो एक आईडिया कभी revolutionary आईडिया हुआ करता था, लेकिन अब वह रिवोल्युशनरी नहीं रहा है.
1990 में रिस्क लेने वालोने घर बनाने या जमीन खरीदने के बजाय आईपीओ में अपने पैसो का निवेश किया और इस तरह वह एक अच्छा रिटर्न प्राप्त कर रहे हैं. लेकिन अभी के दिनों में यह बहुत आम है और लोगों के पास इतना पैसा है कि केवल आईपीओ में निवेश करना एक अच्छा विचार नहीं है, बल्कि फर्स्ट हैंडहोल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड, वेल्थियन प्राइवेट लिमिटेड आदि जैसे स्टार्ट-अप में सीधे निवेश करना हो सकता है.
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ipo के बारेमे मिथ (myth) को तोड़ना-
थियरी में, साम्यवाद (communism), पूंजीवाद (capitalism) और समाजवाद (socialism) सभी एक कम्प्लीट थियरी थे जो महान विचारकों द्वारा विकसित किए गए थे जो हमेशा समाज के कल्याण से संबंधित थे. उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि भविष्य में कोई अपने निजी फायदे के लिए नियमों का गलत इस्तेमाल करने से चूक जाएगा.
एक capitalistic सोसायटी में, लोगों के पास सीमित संसाधन होते हैं, और यदि कोई व्यक्ति व्यक्तिगत दायित्व (liability) पर संसाधनों को उधार लेता है, तो वह इनोवेत नहीं कर पाएगा. उदाहरण के लिए, थॉमस अल्वा एडिसन अपने नए विचारो को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं होते यदि उन्होंने लोगो से पैसे नहीं जुटाए होते.
अगर सब कुछ अपनी 100% लायबिलिटी के साथ उधार लिया जाता है तो कोई भी रिसर्च और डेवलोपमेंट नहीं कर सकता है. जिससे कोई अच्छे प्रोडक्ट तैयार नहीं होगे जो समाज के लाभ के लिए विकसित किये जाये, कोई नए विचार नहीं, कोई दवा नहीं और ऐसा कुछ भी नहीं जो हमारे जीवन की क्वालिटी को improve कर सके.
Capitalism व्यवसाय-दिमाग वाले, आविष्कारक करने वाले व्यक्ति या किसी ऐसे व्यक्ति को अनुमति देता है जो की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाके दूसरों के जीवन को बेहतर बनाने की क्षमता रखता है, जो एक अलग कानूनी इकाई (legal entity) होगी, और लॉ ऑफ़ लैंड का कानून व्यक्ति की रक्षा करेगा.
पूंजीवाद (capitalism) की आदर्शवादी दुनिया में, कंपनी एक अलग इकाई (entity) है. कंपनी जो कुछ भी उधार लेती है वह कंपनी की संपत्ति बन जाएगी, और आप किसी भी स्थिति के लिए उत्तरदायी नहीं होंगे. आपके कीमती सामान को कोई छू नहीं पाएगा. आपको एक प्रतिशत भी नुकसान के लिए जीम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा.
एक आदर्श दुनिया, कैपिटलिजम प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों का निर्माण करता है ताकि सोसायटी में प्रतिभाशाली दिमाग वाले और जोखिम लेने वाले लोगों से बेनिफिट ले सके.
समय के साथ भारत के आदर्शवादी मॉडल में भी काफी बदलाव आया है. हाल के वर्षों में, हमारे कानून में कुछ नीतिगत बदलाव हुए हैं और कानून अधिक अनुमेय (permissive) और उदार (lenient) रहा है. नीति निर्माताओं का मानना है कि इस तरह के बदलाव जनता के हित में हैं.
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नीति निर्धारण (policymaking) पक्षों में 2 बहुत ही महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं-
- कंपनियों को अब IPO के साथ ऑफर फॉर सेल (ओएफएस) दाखिल करने की अनुमति है, जिसे पहले करना संभव नहीं था. यह कंपनी के प्रमोटरों, संस्थापकों और निवेशकों को अपने शेयर बेचने की अनुमति देता है.
- जो कंपनियाँ प्रोफिटेबल नहीं भी हैं, वे भी अब IPO के माध्यम से सार्वजनिक (public) हो सकती हैं.
आमतौर पर पहले लोगों को बहुत कम जानकारी और ज्ञान था कि, हर बार आईपीओ के माध्यम से पैसा इकठ्ठा किया जाता है, इसे कंपनी की बैलेंस शीट में जोड़ा जाता है, जहां इसका इस्तेमाल कंपनी के विकास को आगे बढ़ाने के लिए किया जाएगा.
लेकिन इन दिनों IPO के साथ-साथ वे ओएफएस (OFS) भी लाते हैं जहां ये प्रमोटर और निवेशक अपने शेयरों को offload कर सकते हैं और अपने व्यक्तिगत खाते में पैसा ले सकते हैं जो किसी भी तरह से कंपनी के खाते से लिंक नहीं है.और इसलिए आम लोगों को कंपनी को जज करने और अपने आईपीओ का विश्लेषण करने के बारे में अधिक सावधानी रखनी होगी.
किसी भी व्यवसाय के फंडामेंटल समान रहते हैं, आपको अधिक सतर्क रहना चाहिए और यह देखना चाहिए कि जिस कंपनी में आप निवेश करने जा रहे है क्या वह कंपनी प्रोफिटेबल है या नजदीकी भविष्य में प्रोफीट के लिए कोई रास्ता दिखा रही है और किन तरीकों से? यदि कंपनी लगातार प्रोफिटेबल नहीं है और अपने रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस में प्रॉफिटेबल होने का कोई रास्ता नहीं दिखाती है, तो इसे और ज्यादा जांचने की जरूरत है.
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उसी समय, किसी को यह जांचना चाहिए कि आईपीओ का कौन सा हिस्सा ओएफएस है? क्या यह 100% ओएफएस (OFS) है?
यदि ipo 100% ओएफएस हैं तो आम लोगो द्वारा निवेश किया गया पैसा प्रमोटरों और निवेशकों के पर्सनल बैंक खातों में जाएगा और इसमे से एक पैसा भी कंपनी के खाते में नहीं जाएगा. लोगों को पर्शनल बैंक अकाउंट और कंपनी बैंक अकाउंट के बीच के अंतर को समझने की जरूरत है.
क्योंकि अगर भविष्य में कंपनी को कोई नुकसान होता है, तो निवेशकों, प्रमोटरों और संस्थापकों के इन कंपनी द्वारा खुद को रीवाईव करने के लिए पर्शनल बैंक खातों को टच किया जाएगा. इससे आम निवेशकों को ही नुकसान होगा. इसलिए, लोगों को वास्तव में हर समय इन व्यवसायों की छानबीन (scrutinize) करने की जरूरत है.
उदाहरण के लिए, एक कंपनी में उसके निवेशक, प्रमोटर, कर्मचारी, संस्थापक और कंपनी के नाम पर एक बैंक खाता होता है जहां कंपनी से संबंधित रेवन्यू जमा किया जाता है. अन्य सभी संस्थाओं के अपने पर्सनल बैंक खाते हैं जो कंपनी के नियंत्रण में नहीं आते हैं.
सभी कर्मचारियों का वेतन कंपनी के खाते से आता है और उनके पर्शनल बैंक खाते में जमा किया जाता है.इसी तरह, जब आम जनता IPO खरीदती है, तो निवेश की गई रकम कंपनी के खाते में चली जाती है,
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लेकिन ओएफएस के अधिक प्रतिशत वाले आईपीओ में, जनता द्वारा निवेश किया गया पैसा कंपनी के खाते में नहीं जाता है, बल्कि यह प्रमोटर, निवेशकों और संस्थापक के व्यक्तिगत बैंक खाते में जाता है. जो कंपनी के कंट्रोल में नहीं हैं.
इसलिए, भविष्य में, यदि कंपनी नुकसान से गुजरती है, कर्ज (debt) जुटाती है और दिवालिया हो जाती है, तो कोई भी इन व्यक्तिगत बैंक खातों को नहीं छू सकता है, जबकि संभावित निवेशक वे होंगे जिनका पैसा फंस जाएगा. भले ही कंपनी केवल एक व्यक्ति की हो, फिर भी कंपनी और व्यक्ति दो अलग-अलग entities हैं और कंपनी द्वारा किए गए नुकसान को कवर करने के लिए व्यक्ति को अधिकारियों द्वारा टच नहीं किया जाएगा.
हमारे देश की विडंबना यह है कि लोगों के बीच फाइनेंसियल ज्ञान बहुत खराब है. लोग आईपीओ की अवधारणा (concept) को पूरी तरह से नहीं समझते हैं, ओएफएस (OFS) की नई प्रेक्टिस के बारे में तो बात ही छोड़ दें. यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि संसद के सभी मेम्बर्स भी आईपीओ (IPO) और ओएफएस (OFS) के कॉन्सेप्ट में अंतर को पूरी तरह से नहीं समझते हैं, फिर भी सरकारी अधिकारियों ने इसे वर्ष 2016 में पेश किया है और इसे हरी झंडी दे दी है. जहां कंपनी के प्रमोटर आईपीओ के दौरान कंपनी के शेयरों के साथ अपने व्यक्तिगत शेयर की बिक्री कर सकते हैं और जुटाई गई धनराशि सीधे उनके व्यक्तिगत बैंक खाते में चली जाएगी, जिस पर कंपनी का कोई कंट्रोल नहीं है.
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इस तरह के समायोजन करने के सरकार के फैसले पर सवाल उठाने के लिए इस आर्टीकल का कोई इरादा नहीं है. लेकिन, इन विकासों के साथ कई बलाव हुए हैं, और उसके बाद, ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें IPO निवेशकों को रिटर्न प्राप्त करने में असफल रहे हैं, और ये आईपीओ ऐसे थे जिनमें ओएफएस भी शामिल था.
अभी 90 के दशक से दुनिया बदल गई है. अब यह 1991 नहीं है. हम वर्ष 2022 में जी रहे हैं, जिसमें हमें हर समय ऐसे बिजनस का एनालिसिस करते हुए लगातार अपनी नजर में रहना चाहिए. आईपीओ एक quick-rich स्कीम नहीं है.
IPO एक निवेश करने के लिए सबसे जोखिम भरे परिसंपत्ति (asset) वर्गों में से हैं. भले ही कंपनी प्रसिद्ध हो, लेकिन आप एक खराब निवेश में ख़तम हो सकते हैं . सिर्फ इसलिए कि इसका बाजार में अच्छा attention है, आपको इसमें निवेश नहीं करना चाहिए. कुछ गलत है या सही यह तय करने के लिए आप अपने दिमाग का इस्तेमाल करें.
आईपीओ के साथ ओएफएस लाने वाले निगम या आईपीओ जारी करने वाली घाटे में चल रही कंपनियां सभी पॉलिसी मेकर के अधिकार क्षेत्र में हैं, और यह वेरीफाय करने की जिम्मेदारी उनकी है. हमारी यह जिम्मेदारी है कि हम तथ्यों की दोबारा से जांच करें और फिर कंपनी और उसके आईपीओ के मूल्यांकन के आधार पर एक योग्य निर्णय लें.
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